पहले की वार्ताएं

 

 जून १९६५

 

 क्या तुमने ओरोवील के बारे में सुना है?

 

    काफी लंबे समय तक । यह बात श्रीअरविन्द के जीवनकाल की हैं, मेरे पास एक '' आदर्श नगरी '' की योजना रहीं जिसके केंद्र में श्रीअरविन्द निवास करते थे । बाद मे, मुझे कोई दिलचस्पी नहीं रही । फिर ओरोवील का विचार- ओरोवील नाम मैंने दिया था-एक बार फिर से उठाया गया, लेकिन दूसरे छोर से : निर्माण के लिए स्थान ढूंढने के बजाय, रूईया स्थान -' लेक ' (झील) के पास-ने निर्माण को जन्म दिया, और अब तक मैं उसमें बहुत हो कम रुचि ले रही थी, क्योंकि मुझे स्पष्ट रूप में कुछ भी न मिला था । फिर हमारी छोटी ' क ' ने मन में यह बात ठान ली कि वहां, ' लेक ' के किनारे, एक घर उसके अपने लिए होगा, और उसके साथ ही एक घर मेरे लिए होगा जिसे वह मुझे समर्पित कर देगी । और उसने अपने सभी स्वप्न मुझे लिखे : दो-एक वाक्यों ने अचानक पुरानी, बहुत पुरानी किसी ऐसी चीज की, एक सृष्टि की, स्मृति को कुरेद दिया जिसने, जब मैं बहुत छोटी थी तब, अभिव्यक्त होने की चेष्टा की थी और जिसने फिर से इस शताब्दी के एकदम शुरू में अपने- आपको अभिव्यक्त करने की चेष्टा शुरू की थी, जब मैं लतें के साथ थीं । फिर मैं वह सब फल गयी । इस पत्र के साथ-साथ वह चीज वापस लौट आयी; एकदम से, मेरे पास ओरोवील की योजना बन गयी । अब मेरे पास समस्त योजना है, मैं ' ख ' का इज्जतदार कर रही हू, कि वह ब्योरे के साध योजना को अंकित करे, क्योंकि मैंने शुरू में ही कहा था : '' ' ख ' वास्तुकार होगा '', और मैंने ' ख ' को लिख दिया । पिछले साल जब वह यहां आया था, तो चण्डीगढ़ देखने गया था, इस शहर को ल कारव्यूजिए ने बनाया है, यह पंजाब में है । ' ख ' बहुत खुश न हुआ । यह मुझे काफी सामान्य लगा-मैं इसके बारे में कुछ नहीं जानती, मैंने इसे देखा नहीं है, केवल कुछ चित्र देखे हैं जो भयंकर थे । जब वह मुझसे बातें कर रहा था, तो मैं देख सकती थी कि वह क्या अनुभव कर रहा है : '' काश, मुझे एक शहर बनाने को मिलता!...''

 

 


इसलिए मैंने उसे लिखा : '' अगर तुम चाहो, तो मुझे एक शहर बनवाना है । '' वह खुश है । वह आ रहा है । जब वह आयेगा, मैं उसे अपनी योजना दिखलाऊंगी और वह शहर बनायेगा । मेरी योजना बहुत सरल है ।

 

    स्थान मद्रास के रास्ते पर है, वहां, ऊपर, पहाड़ी पर । (माताजी एक कागज लेकर आंकना शुरू करती हैं । ) यहां है-स्वभावत:, ' प्रकृति ' मे ऐसा नहीं है, हमें अपने- आपको उसके अनुकूल बनाना होगा; आदर्श स्तर पर यह ऐसा है-यहां, एक केंद्र-बिन्दु । यह केंद्र-बिंदु एक उपवन है जिसे मैंने तब देखा था जब मैं बहुत छोटी थीं-शायद भौतिक, जड़- भौतिक प्रकृति के दृष्टिकोण से दुनिया की सबसे सुन्दर वस्तु- अन्य उपवनों की तरह एक उपवन जिसमें पानी हो, वृक्ष हों और फूल हों, लेकिन बहुत नहीं; फूलों की सताएं, ताड़-वृक्ष, फ़र्न, सभी प्रकार के ताड़-वृक्ष हों; पानी, अगर संभव हो तो बहता पानी, संभव हो तो एक छोटा-सा झरना । व्यावहारिक दृष्टि से, यह बहुत अच्छा रहेगा : उपवन के बाहर, दूर, उस छोर पर, हम तालाब बना सकते हैं जिनसे वहां के निवासियों को पानी दिया जा सकेगा ।

 

       हां तो, इस उपवन में मैंने '' प्रेम का मण्डप '' देखा । लेकिन मुझे यह शब्द नापसंद है, क्योंकि मनुष्य ने इसे विकृत कर दिया है; मैं ' भागवत प्रेम ' के तत्त्व की बात कर रही हूं । लेकिन यह बदल गया है : यह '' मां का मण्डप '' होगा-इस मां का नहीं (माताजी अपनी ओर इशारा करती हैं)- 'जननी ', सच्ची 'जननी ', 'जननी '-तत्त्व का मण्डप होगा । मैं '' जननी '' शब्द कह रही हूं क्योंकि श्रीअरविन्द ने इस शब्द का उपयोग किया है, नहीं तो मैं कोई और शब्द रखती, मैं ''सर्जक तत्त्व '' या '' सिद्धि के तत्त्व '' या- -मुझे मालूम नहीं... ऐसा कोई नाम रखती । वह एक छोटी इमारत होगी, बडी नहीं, जिसमें नीचे केवल एक ध्यान का कक्ष होगा, लेकिन उसमें स्तंभ होंगे और कमरा शायद गोलाकार हो । लें शायद कह रही हू, क्योंकि मैं यह ' ख ' के निश्चय पर छोड़ रहीं हूं । ऊपर, पहली मंजिल मे एक कमरा होगा और छत बंद-छत होगी । तुम पुराने भारतीय मुग़ल लघु- चित्रों को जानते हो जिनमें स्तंभों के सहारे खड़ी खुली छतोंवाले महल होते हैं? तुम उन पुराने लघुचित्रों को जानते हो ? ऐसे सैकड़ों चित्र मैंने देखे हैं... । लेकिन यह मण्डप बहुत, बहुत सुन्दर है, इस तरह का एक छोटा मण्डप, जिसके छज्जे पर छोटी-सी छत होगी, और नीची दीवारें

 

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होगी जिनसे सटकर बैठने के लिए गद्दियां होंगी, शाम को, रात को, खुली हवा में ध्यान करने के लिए । और नीचे, सबसे नीचे की मंजिल पर एक ध्यान का कमरा होगा, सीधा सादा-एकदम खाली-सा । शायद दूर के छोर पर कोई ऐसी चीज होगी जो जीवंत ज्योति हो, शायद जीवंत ज्योति में प्रतीक, निरंतर ज्योति । वैसे यह बहुत ही शांत, बहुत ही नीरव स्थान होगा।

 

   पास हो, एक छोटा-सा घर होगा, छोटा-सा घर, फिर भी जिसमें तीन मंज़िले होगी, लेकिन बड़े आकार की नहीं, ओर वह 'क ' का घर होगा । वह मण्डप की संरक्षक होगी । उसने मुझे एक बहुत ही प्यारी चिट्ठी लिखी लेकिन निश्चय हो, वह इतना सब नहीं समझ पायी ।

 

     वह केंद्र है ।

 

     उसके चारों तरफ, एक गोल सड़क होगी जो बग़ीचे को बाकी शहर से अलग करती है । वहां शायद एक प्रवेशद्वार होगा-सचमुच, उपवन में एक होना चाहिये । द्वार के रक्षक के साथ प्रवेशद्वार की रक्षक एक नयी लड़की है जो अफ्रीका से आयी हैं, उसने मुझे एक चिट्ठी लिखी जिसमें वह कहती है कि केवल '' सत्य के सेवकों '' को अंदर आने की इजाजत देने के उद्देश्य से वह ओरोवील की संरक्षिका बनना चाहती है (माताजी हंसती हैं) । यह बहुत अच्छी योजना है । तो शायद मैं उसे उपवन की संरक्षिका के रूप में रखूं, साहा में, प्रवेश-द्वार के पास सड़क पर उसका एक छोटा-सा घर होगा ।

 

    लेकिन मजेदार बात यह है कि इस केंद्र-बिन्दु के चारों ओर, चार बड़े भाग हैं, चार बडी पंखुड़ियों की तरह (माताजी चित्र बनाती हैं), लेकिन पंखुड़ियों पर छोर गोल हैं और चार छोटे मध्यस्थ क्षेत्र हैं-चार बड़े भाग और चार क्षेत्र... । स्वभावत: यह केवल हवा मे है; यथार्थ मे, लगभग ऐसा हीं कुछ होगा ।

 

     इसमें चार बड़े भाग हैं : उत्तर में, यानी, मद्रास के रास्ते की ओर है सांस्कृतिक विभाग; पूरब में, औद्योगिकी विभाग; दक्षिण में अंतर्राष्ट्रीय विभाग और पश्चिम में, यानी झील की तरफ, रिहायशी विभाग ।

 

   अपनी बात को अधिक स्पष्ट करने के लिए : रिहायशी विभाग में उन लोगों के घर होगे जिन्होने पहले से ही धन दे दिया हैं और उन सबके घर

 

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भी होंगे जो ओरोवील में जमीन लेने के लिए बडी संख्या में आ रहे हैं । वह झील के पास होगा ।

 

   अन्तर्राष्ट्रीय विभाग : हर देश का एक मण्डप बनाने के लिए हमने कई राजदूतों और देशों के आगे प्रस्ताव रखा है-हर देश का एक मण्डप । यह एक पुराना विचार था । कुछ ने स्वीकार कर भी लिया है, इसलिए तैयारी हो रही है । हर मण्डप का अपना बगीचा होगा, उसमें जहां तक संभव हों, वहां के प्रतिनिधि पौधे और अन्य पैदावार होगी । अगर उनके पास पर्याप्त जगह और धन हो तो वे एक छोटा-सा संग्रहालय या अपने देश की उपलब्धियों की एक स्थायी प्रदर्शनी भी खोल सकते हैं । हर देश की इमारत उसके अपने देश के स्थापत्य के अनुसार होनी चाहिये-उसे सूचना के प्रलेख की तरह होना चाहिये, फिर, वे जितना पैसा खर्च करना चाहते हैं उसके अनुसार छात्रावास, सभा- भवन इत्यादि के लिए कमरे भी बनवा सकते हैं, उस देश की रसोई, वहां का रस्तोरां भी खोल सकते हैं -वे हर तरह के परिवर्द्धन कर सकते हैं ।

 

      फिर आता है औधोगिक विभाग । अभी से काफी लोग, जिसमें मद्रास की सरकार भी हैं-मद्रास सरकार पैसा उधार दे रही है-वहां उद्योग शुरू करना चाहते हैं, जो विशेष आधार पर होंगे । यह औधोगिक विभाग पूरब की ओर है और बहुत बड़ा हैं, वहां बहुत स्थान है जो नीचे समुद्र की ओर जा पहुंचता है । असल मे पॉण्डिचेरी के उत्तर में काफी बड़ा क्षेत्र बिलकुल निर्जन उग्रह परती है; यह समुद्र के करीब है जो तट के साथ-साथ उत्तर की ओर चला गया हे । तो यह औद्योगिक विभाग समुद्र की ओर नीचे जायेगा, और अगर सम्भव हो तो वहां एक तरह का जहाज-घाट होगा- ठीक बन्दरगाह नहीं, लेकिन एक ऐसा स्थान जहां नावें तट पर आ सकें; और इन सभी उद्योगों के पास अन्त:स्थलीय यातायात की व्यवस्था होगी, वे सीधा नियामत कर सकेंगे । और वहां एक बड़ा होटल होगा-' ख ' ने उसकी योजना भी बना लीं है हम यहां '' मेसाजरी मारितिम '' की जमीन पर होटल बनाना चाहते थे, लेकिन इसके मालिक ने पहले ' हां ' करने के बाद ' ना ' कर दी; यह बहुत अच्छा है, वहां ज्यादा अच्छा रहेगा-बाहर से आये अतिथियों के स्वागत के लिए एक बड़ा होटल । इस विभाग के लिए काफी संख्या मे उद्योगों ने अभी से अपने नाम लिखवा दिये हैं; मुझे मालूम

 

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नहीं कि पर्याप्त जगह होगी या नहीं, लेकिन हम काम चला लेंगे ।

 

   इसके बाद, उत्तर में-जहां निश्चय हो सबसे अधिक स्थान है-मद्रास की ओर, सांस्कृतिक विभाग होगा । वहां, एक सभा- भवन-ऐसा सभा- भवन जिसे बनाने का स्वप्न मैं बहुत दिनों से ले रही हूं ; नक्शे अभी से तैयार हैं-एक ऐसा सभा- भवन जिसमें संगीतशाला हो और एक शानदार ऑर्गन, ऐसा लगन जो अत्याधुनिक और सर्वोत्तम हो । सुना है कि आजकल लोग विलक्षण चीजें बना रहे हैं । मुझे एक शानदार ऑर्गन चाहिये । पार्वण भागों के साथ रंगमंच होगा-घूमने वाला रंगमंच, इत्यादि, अपनी तरह का अच्छे-से- अच्छा । तो, वहां एक भव्य सभा- भवन होगा । वहां पुस्तकालय, सभी तरह की प्रदर्शनियों के साथ एक सराहालय भी होगा-सभा- भवन के अन्दर नहीं : उसके साथ एक फिल्म-स्टूडियो, फिल्म-स्कूल भी होगा; एक ग्लाइडिंग क्लब भी होगा । हमें सरकार की ओर से अनुमोदन मिल गया है और वचन भी दिया जा चुका है, इसलिए काम काफी बढ़ चला है । फिर मद्रास की ओर, जहां बहुत स्थान है । वहां होगा एक स्टेडियम । हम इस स्टेडियम को अधिक-से-अधिक आधुनिक और जितना संभव हो पूज बनाना चाहते हैं, इस विचार के साथ-यह विचार बहुत समय से मेरे दिमाग मे है-कि बारह साल बाद-ओलंपिक खेल हर चार साल बाद होते हैं- १९६८ से बारह साल बाद- ६८ में ओलंपिक खेल मेक्सिको में होने वाले हैं-बारह साल बाद हम भारत में यहां, ओलंपिक खेल करेंगे । अतः हमें जगह की आवश्यकता होगी ।

 

इन विभागों के बीच, मध्यवर्ती क्षेत्र होंगे, चार मध्यवर्ती क्षेत्र : एक होगा सार्वजनिक सेवा के लिए । डाकघर इत्यादि; दूसरे क्षेत्र में यातायात, रेलवे-स्टेशन और संभव हो तो हवाई- अड्डा भी होगा; तीसरा भोजन के लिए होगा-यह झील के पास होगा और इसमें गोशाला, मुर्गीखाने, फलोद्यान, खेती के लिए जमीन, इत्यादि होगी; यह स्थान बहुत विस्तृत होगा और ' लेक स्टेट ' भी इसमें आ जायेगा : वे लोग जो अलग से करना चाहते थे वह भी ओरोवील की परिधि मे आ जायेगा । फिर आता है चौथा क्षेत्र । मैंने कहा हैं : सार्वजनिक सेवा, यातायात, भोजन और चौथे क्षेत्र मे होगी दूकानें । हमें बहुत-सी दूकानों की जरूरत न होगी, लेकिन कुछ की आवश्यकता होगी जिनमें ऐसी चीजें मिल सकें जो हमारे यहां पैदा नहीं होती । देख रहे

 

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हो न, ये क्षेत्र ज़िले की तरह होंगे ।

 

       और आप यहां केंद्र में होगी ?

 

 ' क ' ऐसी आशा करती है (माताजी हंसती हैं) । मैंने ' ना ' नहीं की, मैंने ' हां ' भी नहीं की; मैंने उससे कहा : '' परम प्रभु निश्चय करेंगे । '' यह मेरे स्वास्थ्य पर निर्भर है । स्थानांतरण, नहीं-मैं यहां हू तो समाधि के कारण, मैं यहीं रहूंगी, यह बिलकुल निश्चित है । लेकिन मैं वहां घूमने के लिए जा सकती हूं । वह बहुत दूर नहीं है, गाड़ी से पांच मिनट लगते हैं । लेकिन ' क ' शांत, चुपचाप, अलग-थलग रहना चाहती है, और उसके उपवन मे यह काफी संभव है । वह एक सड़क से घिरा होगा और वहां कोई होगा जो लोगों को अन्दर आने से रोक; आदमी वहां बहुत शांत रह सकता हैं- लेकिन अगर मैं वहां होऊं, तो बस बात वहीं खत्म हो जायेगी । वहां सगिहक ध्यान, इत्यादि होंगे । यानी, अगर मुझे संकेत मिले, पहले तो भौतिक संकेत, फिर बाहर जाने के लिए आंतरिक आदेश, तो मैं वहां जाकर तीसरे पहर एक घंटा बीता सकती हूं-मैं कभी-कभी वहां जा सकती हूं । हमारे पास अभी समय है, क्योंकि सब कुछ तैयार होने में कई साल लगेंगे ।

 

    इसका अर्थ यह है कि शिष्य यही रहेगी ?

 

ओह! आश्रम यहीं रहेगा- आश्रम यहीं रहेगा, मैं यहीं रहूंगी, यह जानी हुई बात है । ओरोवील एक...

 

     एक उपग्रह।

 

 हां, यह बाहरी जगत् के साध संपर्क होगा । मेरे नक़्शे का केंद्र प्रतीकात्मक केंद्र है ।

 

     लेकिन ' क ' इसी की आशा करती है : वह ऐसा घर चाहती है जिसमें वह एकदम अकेली हो और उसी के पास एक ऐसा घर हों जिसमें मैं

 

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बिलकुल अकेली रहूं । यह दूसरी बात एक स्वप्न हैं, क्योंकि मैं और एकदम अकेली... । जो हो रहा है बस, उसे देखने- भर की जरूरत है! सच हैं, हैं न ? तो यह सारी चीज '' एकदम अकेले '' के साध मेल नहीं खाती । एकांत अपने अंदर पाना चाहिये, यही एकमात्र उपाय है । लेकिन जहां तक रहने का सवाल है, निश्चय ही मैं वहां जाकर नहीं रहूंगी, क्योंकि समाधि यहां है, लेकिन मैं वहां घूमने जा सकती हूं । उदाहरण के लिए, मैं वहां किसी उद्घाटन समारोह या अन्य अनुष्ठान के लिए जा सकती हूं । देखेंगे । अभी तो बहुत साल लगेंगे ।

 

   संक्षेप में ओरोवील बाहर वालों के अधिक है ?

 

 ओह हां! यह एक शहर है! अतः, इसका बाहरी जगत् के साथ पूरा संबंध रहेगा । यह पृथ्वी पर एक अधिक आदर्श जीवन को चरितार्थ करने का प्रयास हैं ।

 

      उस पुरानी संरचना के अनुसार जो मैंने बनायी थीं, वहां एक पहाड़ी और एक नदी होनी चाहिये । पहाड़ी तो होनी ही चाहिये, क्योंकि श्रीअरविन्द का मकान पहाड़ी की चोटी पर था । लेकिन श्रीअरविन्द वहां केंद्र मे थे । यह मेरे प्रतीक की योजना के अनुसार व्यवस्थित किया गया था, यानी, बीच का बिंदु, जहां श्रीअरविन्द होंगे, श्रीअरविन्द के जीवन से संबंधित सब कुछ होगा, चार बडी पंखुड़िया होगी-वे ऐसी नहीं थीं जैसी इस चित्र में बनी हैं , कुछ और हीं तरह की थीं- और उसके चारों तरफ बारह थीं, स्वयं शहर था, और उसके चारों तरफ शिष्यों के घर थे; तुम मेरे प्रतीक को जानते हो : रेखाओं के स्थान पर फ़ीते होंगे; हां तो, अंतिम गोलाकार फ़ीते पर शिष्यों के घर होंगे, हर एक का अपना घर और बगीचा होगा-हर एक के लिए एक छोटा-सा घर और बगीचा । यातायात का कोई साधन था, मुझे ठीक पता नहीं कि व्यक्तिगत वाहन थे या सामुदायिक-जैसे पहाड़ों पर खुली ट्रामकारें होती हैं, वैसी-हर दिशा में जाकर शिष्यों को वापस शहर के केंद्र में ले आती थीं । और इस सबके चारों तरफ एक दीवार थी, प्रवेशद्वार और द्वारपाल थे, और बिना अनुमति के व्यक्ति अंदर प्रवेश नहीं पा सकता था । धन नहीं था-दीवार के घेरे के अंदर धन नहीं था; विभित्र

 

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प्रवेश-स्थलों पर बैंक या इस तरह के काउंटर थे जहां व्यक्ति अपने पैसे जमा करा दे और उसके बदले में उसे टिकट मिलते, जिनसे वह वहां रहना, खाना, इत्यादि, सब कुछ पा लेता । लेकिन पैसे नहीं-टिकट बाहर से आने वालों के लिए होते, जो बिना स्वीकृति के अंदर नहीं आ सकते थे । बहुत बड़ा संगठन था... । धन नहीं, मैं धन एकदम नहीं चाहती थी ।

 

  अरे! अपने नक्शे में मैं एक चीज फ गयी । कर्मचारियों के लिए, मैं एक बस्ती बनवाना चाहती थी, लेकिन यह बस्ती औद्योगिकी विभाग का एक हिस्सा होती, शायद औद्योगिकी विभाग के किनारे-किनारे का फैलाव ।

 

मेरी पहली रचना में, दीवार के बाहर, एक तरफ औद्योगिकी शहर था, और दूसरी तरफ शहर की ज़रूरतें पूरी करने के लिए खेत, खलिहान, फार्म, इत्यादि थे । लेकिन वह (रचना) देश का प्रतिनिधित्व करती थी- किसी बड़े देश का नहीं, बस, एक देश का । लेकिन अब चीज काफी छोटी हो गयी है । अब वह मेरा प्रतीक भी नहीं रहा केवल चार क्षेत्र हैं और कोई दीवार नहीं । और धन भी होगा । समझ रहे हो न, पहली रचना सचमुच एक आदर्श प्रयास थीं... । लेकिन शुरू करने की कोशिश करने से पहले मैंने कई साल इस पर विचार किया था । उस समय मैंने चौबीस साल का अंदाज लगाया था । लेकिन अब यह काफी अधिक मर्यादित है, यह एक अस्थायी प्रयास है, और इसे अधिक जल्दी चरितार्थ किया जा सकता है । दूसरी योजना... मुझे करीब-करीब जमीन मिल गयी थी; तुम्हें याद है, यह हैदराबाद के सर अकबर हैदरी के समय की बात है । उन्होंने हैदराबाद रियासत के कुछ फोटोग्राफ भीं मुझे भेजे थे, और उन फोटोग्राफों में मुझे अपना आदर्श स्थान मिल गया था : एक निर्जन पहाड़ी, काफी ऊंची पहाड़ी, और उसके नीचे, बडी, बहती हुई नदी । मैंने उनसे कहा : '' मुझे यह स्थान चाहिये, '' और उन्होंने सारी व्यवस्था कर दी । सब कुछ व्यवस्थित हो गया । उन्होंने यह कहकर मुझे योजनाएं, सब कागज-पत्र भेज दिये कि वे इसे आश्रम को दे रहे हैं । लेकिन उन्होंने एक शर्त रखी-वह अछूता, परती क्षेत्र था -स्वभावत: जगह इस शर्त के साथ दी कि हम उसमें खेती-बारी करेंगे-लेकिन उपज का उपयोग उसी स्थान पर होना चाहिये; उदाहरण के लिए, फसल, लकड़ी का उसी स्थान पर उपयोग होना चाहिये, उसे बाहर नहीं भेजा जा सकता था; हैदराबाद रियासत से बाहर

 

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कुछ नहीं जा सकता था । 'ग ' भी था जो नाविक है, उसने कहा कि वह इंग्लैंड से पाल की एक नौका प्राप्त कर लेगा ताकि उसमें जाकर वहां की उपज यहां, हमारे लिए ला सकें । सारी योजना बहुत अच्छी तरह बन गयी थी! और तब उन्होंने यह शर्त लगा दी । मैंने पूछा कि क्या इस शर्त को हटाना संभव नहीं है ? तब सर अकबर है दरी का देहांत हो गया और मामला वही ठप्प हो गया, उस विचार को छोड़ दिया गया । बाद में, मुझे खुशी हुई कि ऐसा हुआ नहीं, क्योंकि अब, जब श्रीअरविन्द ने शरीर त्याग दिया है, में पॉण्डिचेरी नहीं छोड़ सकतीं । मैं पॉण्डिचेरी उन्हीं के साथ छोड़ सकती थी, बशर्ते कि वे अपने आदर्श कार में रहना स्वीकार करते । उस समय मैंने इस योजना के बारे में 'घ ' से बात की धी (जिसने 'गोलकुण्ड ' बनाया है) और वह उत्साह से भर गया, उसने मुझसे कहा, '' जैसे ही आप बनाना शुरू करें, मुझे बुला लीजिये, मैं आ जऊंगा । '' मैंने अपना नक्शा उसे दिखाया; वह मेरे प्रतीक के विस्तार पर आधारित था; वह बहुत जोश में आ गया था, उसे लगा कि यह विलक्षण होगा।

 

    वह योजना रद्द हो गयी । लेकिन दूसरी, जो एक छोटा-सा मध्यम प्रयास है, उसे करके देख सकते हैं ।

 

    मुझे ऐसी कोई भ्रांति नहीं है कि वह अपनी मौलिक पवित्रता बनाये रखेगी, लेकिन हम कुछ करने की कोशिश कर सकते हैं ।

 

     योजना के आर्थिक संगठन पर बहुत कुछ निर्भर है ?

 

फिलहाल, 'ड ' उसकी देख-रेख कर रहा है, क्योंकि उसके पास ' श्रीअरविन्द सोसायटी ' के माध्यम से पैसा आता है और उसने जमीन खरीद ली हे । काफी सारी जमीन पहले ही खरीदी जा चुकी है । काम अच्छी तरह चल रहा है । स्वभावत:, पर्याप्त धन पाने की कठिनाई है । लेकिन, उदाहरण के लिए, मण्डप-हर एक देश अपने मण्डप का खर्च खुद उठायेंगे, उद्योग - हर उद्योग अपने व्यवसाय का खर्च स्वयं देगा; मकान-हर एक अपनी जमीन के लिए आवश्यक धन देगा । मद्रास सरकार ने हमें पहले से हीं वचन दे रखा हैं कि वह साठ और अस्सी प्रतिशत के बीच देंगे : उसमें से एक हिस्सा अनुदान के रूप मे होगा; एक हिस्सा उधार के रूप में जो बिना

 

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ब्याज होगा और उसे दस साल, बीस साल, चालीस साल में चुकाया जा सकेगा-लम्बी अवधि में चुकता उधार । ' ड ' इसके बारे में सब कुछ जानता है, उसे काफी कुछ परिणाम भी मिले हैं, लेकिन पैसा जल्दी आता हैं या धीरे -धीरे आता है, उसके अनुसार काम जल्दी या धीरे होगा । निर्माण की दृष्टि से, वह ' ख ' की नमनीयता पर निर्भर है मेरे लिए सभी ब्योरे एक समान हैं-केवल, मैं चाहती हूं कि यह मण्डप बहुत सुन्दर हो । मैं उसे देख सकती हू । क्योंकि मैंने उसे देखा हैं, मैंने उसका अंतद,र्शन किया है अतः मैं उसे वह समझाने की कोशिश करूंगी जो मैंने देखा है । और उपवन भी, उसे भी मैंने देखा है-ये पुराने अंतर्दर्शन हैं जो मैंने बहुत बार देखे हैं । लेकिन यह कठिन नहीं है ।

 

       सबसे बडी कठिनाई है पानी की, क्योंकि वहां आसपास कोई नदी नहीं है । नदियों के पानी को घुमाकर नहरें बनाने की कोशिश अब भी की जा रही है ऐसी योजना भी थी कि हिमालय से लेकर पूरे भारत में पानी दिया जाये : ' च ' ने एक योजना बनायी थी और उसके बारे में दिल्ली में बातचीत भी की; उन्होंने इस पर आपत्ति की कि चीज कुछ महंगी पड़ेगी, यह तो स्पष्ट है! लेकिन, फिर भी, इतनी विशाल चीजें करने के स्थान पर, हम पानी के लिए कुछ तो कर ही सकते हैं । यह सबसे बडी कठिनाई होगी; इसमें सबसे अधिक समय लगेगा । बाकी सब, बिजली, रोशनी की व्यवस्था वही औद्योगिकी विभाग में हो सकती है-लेकिन पानी को बनाया नहीं जा सकता ! अमरीका के लोगों ने गंभीर रूप से समुद्र के पानी का उपयोग करने का कोई तरीका ढूंढ निकालने का सोचा हैं, क्योंकि अब धरती के पास मनुष्य के लिए पर्याप्त पीने का पानी नहीं है-वह पानी जिसे चें '' ताजा '' कहते हैं : यह व्यंग्य है; मनुष्य की आवश्यकताओं के लिए पानी की मात्रा पर्याप्त नहीं है, इसलिए उन्होंने समुद्र के पानी को बदलने और उसे उपयोगी बनाने के लिए बड़े पैमाने पर रासायनिक प्रयोग शुरू कर दिये हैं-स्पष्ट है, वह समस्या का समाधान होगा ।

 

   लोइकन यह तो अब भी है !

 

 यह है तो, लेकिन काफी बड़े पैमाने पर नहीं ।

 

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    जी, इज़राइल में है।

 

क्या इज़राइल में ऐसा करते हैं ? क्या वे समुद्र के पानी का उपयोग करते हैं ?  स्पष्ट है कि वह समाधान होगा-समुद्र वहां है ही ।

 

    देखेंगे ।

 

   उसे हाथ में लेना होगा ।

 

   एक नौका-विहार क्लब अच्छा होगा?

 

आह! निश्चय ही, औद्योगिकी विभाग के साहा ।

 

     वहां आपके बन्दरगाह के पास ?

 

वह '' बन्दरगाह '' नहीं होगा बल्कि, अच्छा... हां, अतिथियों का होटल और पास ही में नौका-विहार क्लब, यह अच्छा विचार है । मैं इसे भी जोह लुंगी । (माताजी उसे लिख लेती हैं ।)

 

      यह जरूर सफल होगी ।

 

अब देखो! पत्रों की बौछार, मेरे बच्चे! हर जगह से, दुनिया के हर कोने से, लोग मुझे लिख रहे हैं : '' आखिर! यही वह योजना है जिसकी मैं प्रतीक्षा करता आया हूं '', इत्यादि । एक बौछार।

 

    एक ग्लाइडिंग क्लब भी होगा । हमें एक निर्देशक और गाइड मिलने का वचन मिल चुका है । यह एक वचन है । यह औद्योगिक विभाग में, पहाड़ी के ऊपर होगा । स्वभावत:, नौका-विहार क्लब समुद्र के पास होगा, झील के पास नहीं; लेकिन मैंने सोचा था-क्योंकि झील को गहरा करने की बहुत जोर-शोर से बातें चल रही हैं, वह प्रायः भर गयी है-मैं वहां जलविमान स्टेशन की बात सोच रही थी ।

 

      हम झील मे धी नौका-विहार कर सकते हैं ?

 

अगर जलविमान हों तो नहीं । नौका-विहार के लिए वह पयाप्त बडी नहीं

 

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है । लेकिन जलविमान स्टेशन के लिए वह बहुत अच्छी रहेगी । लेकिन यह निर्भर करता है : अगर हमारे यहां हवाई- अड्डा हों तो यह आवश्यक नहीं है; अगर हवाई- अड्डा न हो तो... । लेकिन 'लेक ऐस्टेट ' की योजना में हवाई- अड्डा था । 'छ ' जो अब स्कग़ड्रन लीडर बन गया है, उसने मुझे हवाई- अड्डे की योजना भी बनाकर भेजी है, लेकिन छोटे हवाई जहाज़ों के लिए, जब कि हम एक ऐसा हवाई- अड्डा चाहते हैं, जो नियमित रूप से मद्रास के यातायात को संभाल सके, सवारी हवाई- अड्डा । इसके बारे में बहुत बातचीत हो चुकी है । 'एयर इण्डियन ' और दूसरी अम्पनी से बातचीत हुई थी; लेकिन फिर वे कोई समझौता न कर पाये-बहुत तरह की तुच्छ, बेवकूफी- भरी कठिनाइयों के कारण । लेकिन यह सब कठिनाइयां ओरोवील के विकास के साथ, काफी स्वाभाविक रूप से रू हो जायेंगी-हवाई- अड्डा पारक लोग बहुत ज्यादा खुश हो जायेंगे ।

 

     नहीं, दो कठिनाइयां हैं । हमारे पास धन-राशि थोडी है-ठीक-ठीक कहें तो : केवल वही जो सरकार उधार दे सकती है और वह जो व्यक्ति अपनी जमीन के लिए दे रहे हैं-बस, इतना धन आ रहा है । लेकिन, जानते हो, इसके लिए बहुत मोटी रकम चाहिये, किसी कार को बनाने के लिए अरबों की आवश्यकता पड़ती है !

 

*

 

 सितम्बर, १९६६

 

 ओरोवील में भीख मांगना निषिद्ध है । जो लोग रास्ते पर भीख मांगते देखे जायेंगे उन्हें इस तरह बांट दिया जायेगा : बच्चों को स्कूल में, बूढ़ों को किसी मकान में, बीमारों को अस्पताल में, स्वस्थ लोगों को काम में ।

 

     इसके लिए एक विद्यालय, घर, अस्पताल और विशेष कार्यक्षेत्र की व्यवस्था की जायेगी । उन्हें औरों के साथ घुलने-मिलने न दिया जायेगा, -क्योंकि कुछ लोग बाहर से आकर सड़कों पर भीख मांगना शुरू कर सकते हैं ।

 

    वहां कोई पुलिस न होगी । हमारे पास... हमारे पास कोई शब्द नहीं

 

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है... रक्षकों का एक दल होगा, रक्षकों की एक टोली, कुछ-कुछ जापान के आग बुलाने वालों जैसी, वे कसरती-पहलवान होते हैं और दुर्घटना होने पर सब कुछ करते हैं-कुछ भी, भुकम्प के समय वे सब कुछ करते हैं । वे चढ़कर मकानों मे जा पहुंचाते हैं । पुलिस के स्थान पर, रक्षकों की टोली होगी जो सारे नगर में चक्कर लगाती रहेगी और देखेगी कि कहीं उनकी जरूरत तो नहीं हैं । अगर वे किसी को भीख मांगते देखेंगे तो जैसा मैंने कहा उन्हें उस तरह भेज दिया जायेगा । बच्चों के लिए विधालय होगा, बूढ़ों के लिए घर होगा, बीमारों और अपाहिजों के लिए अस्पताल होगा, और एक ऐसा स्थान होगा जहां काम दिया जायेगा, उन सबको जो... । सब प्रकार के संभव काम होंगे, झाडू-बुहारू से लेकर... कुछ भी, और वे अपनी क्षमता के अनुसार ऐसा कोई भी काम करेंगे जिसकी जरूरत हो । इसकी व्यवस्था करनी होगी ।

 

     एक विशेष विधालय जो बच्चों को काम करना सिखायेगा, ऐसी चीजें करना सिखायेगा जो काम के लिए अनिवार्य हैं ।

 

       कोई जेल नहीं, कोई पुलिस नहीं ।

 

 ३० दिसम्बर, १९६७

 

 ओरोवील के बारे में माताजी से जो बातचीत हुई थी उसे किसी ने अपनी स्मरण-शक्ति के आधार पर लिख लिया था । माताजी उसे पढ़ाती हैं :

 

'' ओरोवील आत्म-निर्भर नगरी होगी ।

 

''वहां जितने लोग रहेंगे वे सब उसके जीवन ओर विकास में भाग लोंगो !

 

   '' यह सक्रिय या निष्किय सहयोग के रूप में हो सकता है !

 

 ''यूं ओरोवील ये कोई कर नहीं लगाया जायेगा लोइकन हर व्यक्ति सामूहिक कल्याण के लिए धन वस्तु या सेवा द्वारा कुछन- कुछ सहयोग देगा ।

 

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'' उधोग जैसे क्रियात्मक रूप से सहयोग देने वाले विभाग नगर के विकास के अपनी का कुछ भान देंगे ।

 

''या अगर के कुछ चीज करते ' (मान लो खाध) जो नगरवासियों के उपयोगी, तो के कार को ये चीजें ', क्योंकि नगरवासियों को खिलाने के स्वयं नगर जेन्मैदारी है।

 

 ''ओरोवील  के लिए कोई नियम या विधान नहीं बनाये  जा रहे !जैसे- जैसे नगर का आंतरिक सत्य प्रकट - चीजें अपना रूप लेती जायेगी हम से नियम बनाते ।''

 

 मेरा ख्याल है मैंने इससे ज्यादा कहा था, क्योंकि आंतरिक रूप से, मैंने इसके बारे में बहुत कुछ कहा था-संगठन, भोजन, आदि के बारे में । हम परीक्षण करेंगे ।

 

    कुछ ऐसी चीजें हैं जो सचमुच मजेदार हैं; सबसे पहले, उदाहरण के लिए, मैं चाहूंगी कि हर देश का अपना मण्डप हो, और हर मण्डप में उस देश का अपना रसोईघर हो-यानी, जापानी लोग चाहें तो अपने ढंग का खा सकेंगे, आदि लेकिन स्वयं कार में शाकाहारी-मांसाहारी, दोनों तरह का भोजन मिल सकेगा, और साथ ही आगामी कल के भोजन के बारे में खोज करने की कोशिश भी की जायेगी ।

 

पाचन की सारी क्रिया जो तुम्हें इतना भारी बना देती है-इसमें व्यक्ति का बहुत समय और शक्ति खर्च होती है-यह सब काम पहले ही हो जाना चाहिये, तुम्हें ऐसी कोई चीज मिलनी चाहिये जो एकदम आत्मसात् हो जाये, ऐसी चीजें आजकल बनायी जाती हैं; उदाहरण के लिए, विटामिन और प्रोटीन की गालियां, जिन्हें तुरंत आत्मसात् किया जा सकता है, ऐसे पौष्टिक तत्त्व जो किसी-न-किसी चीज मे पाये जाते हैं, जिनकी मात्रा अधिक नहीं होती-जरा-सी मात्रा आत्मसात् करने के लिए बहुत अधिक खाने की जरूरत पड़ती है । इसलिए अब चूंकि रसायन की दृष्टि से मनुष्य काफी प्रवीण हो चुका है, वह चीजों को ज्यादा आसान बना सकता है ।

 

   लोगों को यह केवल इसलिए पसंद नहीं है क्योंकि उन्हें खाने में अपार आनन्द आता है; लेकिन जब कोई खाने में बहुत अधिक रस नहीं लेता, तब भी उस पर समय बरबाद किये बिना पोषण की आवश्यकता तो होती

 

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ही है । बहुत सारा समय बरबाद होता है-खाने में, हजम करने में, और बाकी सब में । इसलिए यहां, मैं चाहूंगी कि एक रसोईघर इस तरह के परीक्षणों के लिए हो, एक प्रकार की पकाने की प्रयोगशाला हो । लोग अपने स्वाद और रुझान के अनुसार जहां चाहें जा सकें ।

 

    और फिर भोजन के लिए दाम देने की जरूरत नहीं, लेकिन उन्हें अपनी सेवाएं या उत्पादन अर्पित करने चाहियें : उदाहरण के लिए, जिनके पास खेत हों उन्हें अपने खेतों की उपज देनी चाहिये; जिनके पास कारखाने हों उन्हें कारखाने की बनी चीजें देनी चाहियें; या फिर व्यक्ति भोजन के बदले अपना श्रम दे ।

 

   यह विधि एक बडी हद तक रुपये-पैसे के अंदरूनी लेन-देन को श कर देगी । हर चीज के लिए हमें इस तरह की चीजें खोजनी चाहिये । मूलभूत रूप से, यह नगरी अध्ययन के लिए होनी चाहिये, अध्ययन और शोध के लिए जिससे जीवन अधिक सरल बन सके और उच्चतर गुणों के विकास के लिए अधिक समय मिल सके ।

 

   यह तो केवल छोटा-सा आरंभ है ।

 

    माताजी एकएक करके लिखे हुए वाक्यों को लेती हैं:

 

    ''ओरोवील आत्म-निर्भर नगरी होगी। ''

 

मैं इस बात पर जोर देना चाहती हूं कि यह एक परीक्षण होगा, यह परीक्षण करने के लिए है-परीक्षण, शोध, अध्ययन । ओरोवील एक ऐसी नगरी होगी जो '' आत्म-निर्भर '' होने की कोशिश करेगी, या उस दिशा में चलेगी, या '' आत्म-निर्भर '' बनना चाहेगी, यानी...

 

    स्वायत्त?

 

''स्वायत्त '' का मतलब ऐसी स्वाधीनता समझा जाता है जिसमें औरों से संबंध कट जाता है, मेरा मतलब उससे नहीं है ।

 

     उदाहरण के लिए, जो लोग ' ओरोफूड ' की तरह खाने की चीजें तैयार

 

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करते हैं-स्वभावत:, जब ५०, ००० लोग होंगे तो उनकी ज़रूरतें पूरी करना कठिन होगा, लेकिन फिलहाल तो कुछ हजार ही हैं-अच्छा कारखाना तो हमेशा बहुत ज्यादा पैदा करता हैं, इसलिए वह अपनी चीजें बाहर बेचेगा और धन करायेगा । उदाहरण के लिए ' ओरोफूड ' अपने कर्मचारियों के साथ विशेष संबंध स्थापित करना चाहता है-पुराने ढंग के नहीं, कोई ऐसी चीज जो साम्यवादी प्रथा का सुधरा हुआ रूप हो, सोवियेट पद्धति से अधिक संतुलित व्यवस्था, यानी, जो किसी एक ओर ज्यादा झुककर अति न करेगी ।

 

   मैं एक बात कहना चाहती थीं : सारे कार को लें तो रहन-सहन का हिसाब व्यक्ति के हिसाब से नहीं होगा; यानी, हर आदमी को इतना देना पड़ेगा, ऐसा न होगा । साधन, कार्य और उत्पादन की संभावना के अनुसार हिसाब लगाया जायेगा; जनतंत्र का विचार नहीं होगा जो समग्र को बराबर- बराबर के टुकड़ों में काट देता है, यह एक बेहूदा प्रणाली है । इसके बजाय साधनों के अनुपात से हिसाब लगाया जायेगा : जिसके पास ज्यादा है वह ज्यादा देगा, जिसके पास कम है वह कम देगा; जो मजबूत है वह ज्यादा काम करेगा, जो मजबूत नहीं है वह कुछ और करेगा । हां, यह ऐसी चीज है जो ज्यादा सत्य, ज्यादा गहरी होगी । इसीलिए, मैं इसे अभी से समझाने की कोशिश नहीं करती, क्योंकि लोग हर तरह की शिकायतें करना शुरू कर देंगे । असल में तो जैसे-जैसे नगरी बढ्ती जाये वैसे-वैसे इस सबको सच्चे भाव में अपने- आप होते जाना चाहिये । इसलिए यह नोट बहुत संक्षिप्त

 

    उदाहरण के लिए, यह वाक्य :

 

   '' यहां रहने वाले सब लोग इसके जीवन और विकास में भान लोंग ! ''

 

यहां रहने वाले इस कार के जीवन और विकास में अपनी क्षमता और अपने साधनों के अनुसार भाग लेंगे, यांत्रिक रूप में नहीं-हर इकाई के लिए इतना । बात यह है, यह एक जीवित-जाग्रत् और सच्ची चीज होनी चाहिये, कोई यांत्रिक चीज नहीं; और हर एक की क्षमता के अनुसार : यानी, जिसके पास थोतिक साधन हों, जैसे कारखानेवाले, अपनी उपज के

 

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अनुपात में सहायता दें, आदमी गिनकर नहीं ।

 

     '' निष्किय या सक्रिय सकता ''

 

 इसमें '' निष्किय '' ठीक तरह मेरी समझ में नहीं आया; मैंने फ्रेंच में कहा था, यह उसका अनुवाद है । इसका ठीक-ठीक अर्थ क्या हो सकता है, '' निष्किय ''?... यह कुछ-कुछ क्षेत्र या चेतना के भित्र स्तर होगा ।

 

     क्या आपका मतलब यह है कि जो मनीषी हैं जो अन्दर से काम करते ', उन्हें ...

 

 हां, यही । जिनके पास उच्चतर ज्ञान हैं उन्हें हाथों से काम करने की जरूरत नहीं, मेरा यही मतलब था ।

 

    '' यूं वहां कर न होने लोइकन हर एक कल्याण के लिए धन उपज या काम के दुरा सहयोग देगा ''

 

तो यह स्पष्ट है : वहां कर नहीं होंगे, लेकिन हर एक से आशा की जायेगी कि सबके भले के लिए काम, उपज या धन से सहायता करें । जिनके पास धन के सिवाय कुछ नहीं हैं वे धन देंगे । लेकिन सच बात तो यह है कि ''काम '' का मतलब आंतरिक कार्य हो सकता हैं-लेकिन हम यह बात नहीं कह सकते, क्योंकि लोग इतने ईमानदार नहीं हैं । पूरी तरह अपने अन्दरही- अन्दर, गुह्य कार्य हो सकता है; लेकिन आदमी को उसके लिए पूरी तरह सच्चा और ईमानदार होना चाहिये, और उसके लिए क्षमता होनी चाहिये : कोई ढोंग न हो । यह जरूरी नहीं है कि काम भौतिक काम ही हो ।

 

    '' उद्योग जैसे क्रियात्मक रूप से सहयोग देने वाले विभाग नगर के विकास के लिए अपनी आमदनी का कुछ भाग लौ या अगर वे कुछ चीज पैदा करते हों (मान लो खाद्य) जो नगरवासियों के

 

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 लिए उपयोगी हो तो बे कार को यह चीज सौ ? क्योंकि नगरवासियों को खिलाने के लिए स्वयं कार जिम्मेदार है !''

 

 हम अभी यही तो कह रहे थे । उद्योग सक्रिय रूप से भाग लेंगे, वे सहयोग देंगे । अगर ये ऐसे उद्योग हैं जो ऐसी चीजें बनाये जिनकी हमेशा खपत न हो और इस कारण शहर के लिए संख्या या मात्रा में अधिक हो जायें तो उन्हें बाहर बेचा जायेगा । तब, स्वभावत:, उन्हें धन से सहायता करनी चाहिये । और मैं खाद्य पदार्थ का उदाहरण लेती हूं ; जो लोग खाद्य पदार्थ पैदा करेंगे वे-स्वभावत, अपनी उपज के अनुपात में-नगर को खाद्य देंगे और कार सबके भरण-पोषण के लिए जिम्मेदार होगा । मतलब यह कि पैसा देकर खाद्य खरीदने की जरूरत न होगी; बल्कि उसे कमाना होगा ।

 

    यह एक प्रकार से साम्यवादी आदर्श से मिलता-जुलता रूप है, लेकिन समतल करने की वृत्ति से नहीं; यहां हर एक का स्थान उसकी क्षमता, आंतरिक स्थिति के अनुसार होगा-बौद्धिक या मनोवैज्ञानिक क्षमता या स्थिति के अनुसार नहीं ।

 

     सत्य तो यह है कि हर आदमी को भौतिक दृष्टि से अधिकार हैं- लेकिन यह '' अधिकार '' नहीं है... । हमारा संगठन कुछ ऐसा होना चाहिये, उसकी व्यवस्था ऐसी होनी चाहिये कि हर एक की भौतिक आवश्यकताएं पूरी हो सकें, लेकिन इसकी कसौटी अधिकार या बराबरी नहीं, बल्कि न्यूनतम आवश्यकताएं होंगी । और यह एक बार स्थापित हो जाये, तो फिर हर एक अपने जीवन की व्यवस्था- आर्थिक साधनों के अनुसार नहीं, बल्कि अपनी आंतरिक क्षमताओं के अनुसार कर सकने के लिए स्वतंत्र हो सकेगा ।

 

     '' कोई नियम या विधान ' बनाये जायेने ! - इस का मूलभूत सत्य प्रकट रूप लेता जायेगा - चीजें अपना रूप लेती जायेगी हम ' लगाते।  ''

 

 मेरा मतलब यह है कि सामान्यत: - आज तक, और अब अधिकाधिक रूप में-लोग अपने मानसिक विचारों और आदर्शों के अनुसार मानसिक

 

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नियम बनाते आये हैं; और फिर वे उनके अनुसार चलते हैं (माताजी मुंडी बांधकर दिखाती हैं कि दुनिया मन की कितनी पकडू में है ), लेकिन यह बिलकुल मिथ्या, मनमानी और अवास्तविक स्थिति है-इसके परिणामस्वरूप विद्रोह होते हैं या चीजें मुरझाकर अदृश्य हो जाती हैं... । होना तो यह चाहिये कि जीवन का अनुभव हीं, जहां तक संभव हो, अधिक-से- अधिक लचीले और विस्तृत नियम बनाये, ऐसे नियम बनाये जो प्रगतिशील हों । कोई चीज बंधी हुई न हो ।

 

   सरकारों की यह बहुत बडी भूल है; वे एक चौखटा बनाते हैं और कहते हैं : '' लो, अब यह तैयार है, तुम्हें इसके अंदर हीं रहना होगा । '' स्वभावत: इसके परिणामस्वरूप जीवन कुचला जाता है और वे उसे प्रगति करने से रोकती हैं । होना तो यह चाहिये कि धीरे-धीरे यथासंभव सामान्य नियम बनाते हुए जीवन स्वयं ' ज्योति ', ' ज्ञान ' और ' शक्ति ' की ओर अग्रसर होते हुए अधिकाधिक विकसित हो और ये नियम अत्यधिक नमनीय हों, ताकि आवश्यकतानुसार बदल सकें-उतनी हो तेजी से बदले जितनी तेजी से ज़रूरतें ओर आदतें बदलती हैं ।

 

(मौन)

 

सारी समस्या का निचोल यह है : बुद्धि के मानसिक प्रशासन की जगह आध्यात्मिक चेतना का प्रशासन स्थापित किया जाये ।

 

*

 

 फरवरी १९६८

 

मनुष्य के अंदर पूर्ण पारदर्शक निष्कपटता होनी चाहिये । निष्कपटता का अभाव ही उन वर्तमान कठिनाइयों का कारण है जिष्का हमें सामना करना पड़ता हैं । कपट सब मनुष्यों में है । शायद पृथ्वी पर सौ मनुष्य ही ऐसे हों जो पूर्ण रूप से निष्कपट हैं । मनुष्य की प्रकृति हो उसे कपटी बना देती है -यह बहुत पेचीदा चीज है, क्योंकि वह निरंतर अपने- आपको धोखा देता हैं, अपने- आपसे सत्य को छिपाता है, अपने लिए बहाने बना लेता है ।

 

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सत्ता के सभी भागों में निष्कपट बनने का उपाय योग है ।

 

निष्कपट होना मुश्किल हैं, लेकिन फिर भी व्यक्ति कमसेकम मानसिक रूप में तो निष्कपट हों सकता हैं; ओरोवीलवासियो से इसी चीज की अपेक्षा तो की ही जा सकतीं है । शक्ति इस तरह मौजूद है जैसे पहले कभी नहीं रहीं थी मनुष्य का कपट उसे नीचे उतरनें से, उसका अनुभव करने से रोकता है । संसार मिथ्यात्व मे जीता है, अब तक मनुष्यों के सभी पारस्परिक संबंध मिथ्यात्व और छल पर आधारित हैं । राष्ट्रों के पारस्परिक कूटनीतिक संबंध मिथ्यात्व पर आधारित हैं । वे शांति की इच्छा का दावा करते हैं और साथ-साथ अपने- आपको अस्त्रों से सज्जित करते हैं । पारदर्शक निष्कपटता हीं मनुष्यों और राष्ट्रों के बीच रूपान्तरित जगत् को ला सकती है !

 

    इस परीक्षण के लिए ओरोवील पहला प्रयास है । एक नये जगत् का जन्म होगा; अगर मनुष्य रूपांतर के लिए प्रयास करें, निष्कपटता को पाने की कोशिश करें, तो यह संभव है । पशु सें मनुष्य बनने में हज़ारों वर्ष लगे; आज, अपने मन के दुरा, मनुष्य एक ऐसे रूपांतर की इच्छा कर सकता है और उसे जल्दी ला सकता है जो ऐसे मनुष्य की ओर ले जाये जो देव हो ।

 

    मन की सहायता से- आत्म-विश्लेषण से-यह रूपांतर पहला चरण होगा; इसके बाद, प्राणिक आवेगों को बदलना आवश्यक होगा : यह कही अधिक कठिन है, और विशेषकर भौतिक का रूपांतर और भी कठिन हैं । हमारे शरीर के प्रत्येक अणु को सचेतन होना होगा । यहीं कार्य है जिसे मैं यहां कर रहीं हू; यह मृत्यु पर विजय को संभव बनायेगा । यह एक और ही कहानी है; यह भविष्य की मानवता होगी, शायद सैकड़ों साल बाद, शायद उससे पहले । यह मनुष्य पर, राष्ट्रों पर निर्भर करेगा ।

 

    ओरोवील इस लक्ष्य की ओर पहला चरण है ।

 

*

 

२९१


मार्च १९६८

 

 ओरोवील के घोषणा-पत्र की पहली धारा '' ओरोवील में रहने के लिए व्यक्ति को ' भागवत चेतना ' का इच्छुक ओर तत्पर सेवक होना चाहिये '' के बारे में ।

 

 इस समय ओरोवील के बारे मैं यह एक बड़ा विवादास्पद विषय बना हुआ है । घोषणा-पत्र में मैंने '' भागवत चेतना '' रखा है, इसलिए वे कहते हैं : ''यह हमें खुदा की याद दिलाता हैं । '' मैंने कहा (माताजी हंसती हैं) : '' मुझे तो यह खुदा की याद नहीं दिलाता ! ''

 

     इसलिए कुछ इसे '' उच्चतम चेतना '' में अनूदित करते हैं, दूसरे कुछ और कहते हैं । मैंने रूसी लोगों के '' पूर्ण चेतना '' शब्द रखने से सहमति प्रकट की, लेकिन यह लगभग समान है... और वह ' तत् '-जिसका कोई नाम नहीं और जिसकी कोई परिभाषा नहीं-है परम ' शक्ति ' । यह वह ' शक्ति ' है जिसे व्यक्ति पाता है । और परम 'शक्ति ' केवल एक पहलू है : वह पहलू जो सर्जन से संबद्ध है ।

 

*

 

 १० अप्रैल १९६८

 

     ओरोवील के प्रसंग में : धन और प्रशासन पर ।

 

 कहा जा सकता है कि धन के लिए युद्ध '' परस्पर-विरोधी रूण्मित्व '' के बीच युद्ध है, लेकिन सचमुच धन किसी का नहीं । धन के स्वामित्व के विचार ने सबको गुमराह कर दिया हैं । धन को किसी की '' संपत्ति '' नहीं होना चाहिये : शक्ति की तरह यह कर्म करने का साधन है जो तुम्हें दिया गया हे और उसका उपयोग... कह सकते हैं '' ' देने वाले ' की इच्छा '' के अनुसार करना चाहिये, यानी निवैयक्तिक और ज्ञानपूवक करना चाहिये । अगर तुम धन को बढ़ाने और उपयोग करने के अच्छे यंत्र हो, तो तुम्हारे

 

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पास धन आयेगा, और तुम्हारे अंदर उपयोग करने की जितनी क्षमता होगी उसके अनुपात में आयेगा, क्योंकि यह उपयोग करने के लिए ही होता हैं । यही सच्चा तरीका है ।

 

   सच्चा मनोभाव यह है : धन धरती पर कुछ काम करने के लिए एक शक्ति हैं, धरती को भागवत शक्तियों को ग्रहण करने और उन्हें अभिव्यक्त करने योग्य बनाने के लिए तैयार करना ही उसका काम है । उसे-यानी, उपयोग करने की शक्ति को-ऐसे हाथों में आना चाहिये, ऐसे लोगों के पास होना चाहिये जिन्हें सर्वाधिक स्पष्ट, व्यापक और सच्ची दृष्टि प्राप्त हो ।

 

   शुरू करने के लिए सबसे पहली चीज है (यधापि यह है एकदम प्रारंभिक) स्वामित्व का भाव न रखना- आखिर '' यह मेरा है '' का मतलब क्या हैं ? ... मुझे समझ मे नहीं आता । लोग उसे अपना क्यों बनाना चाहते हैं ? - इसलिए कि वे अपनी मरज़ी के मुताबिक उसका उपयोग कर सकें, उसका जो चाहें कर सकें? अपने सोच-विचार के अनुसार उसका उपयोग कर सकें? बात ऐसी ही है । दूसरी ओर, हां, ऐसे लोग हैं जो उसे कहीं ढेर लगाकर जमा रखना चाहते हैं... लेकिन यह बीमारी है । वे उसे इसलिए जमा करते हैं ताकि उन्हें यह विकास रहे कि वह हमेशा उनके पास हैं ।

 

    लेकिन अगर आदमी यह समझ ले कि उसे ग्रहण करने और बांटने का केंद्र होना चाहिये, केंद्र जितना विस्तृत होगा (व्यक्तिगत का ठीक उलटा) जितना निवैयक्तिक, व्यापक और विस्मृत होगा, उतनी ही ज्यादा शक्ति को धारण कर सकेगा ('' शक्ति '' का मतलब हैं वह शक्ति जो द्रव्यात्मक रूप में नोट या सिक्का में बदल जाती है) । धारण करने की यह शक्ति सर्वोत्तम उपयोग के अनुपात में होती है-'' सर्वोत्तम '' आम प्रगति की दृष्टि से विशालतम दृष्टि, उदारतम समझ और सर्वाधिक प्रबुद्ध, यथार्थ और सच्चा उपयोग जो अहंकार की झूठी आवश्यकताओं के अनुसार नहीं, धरती के विकास और उसकी प्रगति की दृष्टि से आम आवश्यकताओं के अनुसार हो अर्थात् विशालतम दृष्टि में होगी सर्वाधिक क्षमता ।

 

     सब मिथ्या गतियों के पीछे एक सत्य गति भी है; इस प्रकार निर्देशन, उपयोग और व्यवस्था करने में एक आनंद है जिसमें कमसेकम अपव्यय हो और अधिक-से- अधिक परिणाम आये । इस दृष्टिकोण का होना बहुत

 

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रोचक दृष्टिकोण का होना है । और जो लोग धन संचित करना चाहते हैं उनका यह सच्चा पक्ष होना चाहिये : यह है बहुत बड़े पैमाने पर उपयोग करने की क्षमता । और फिर, ऐसे लोग हैं जो संपन्न होना और खर्च करना बहुत पसंद करते हैं । यह एक दूसरी ही चीज है-वे ऐसे उदार स्वभाव के होते हैं जो न नियमित होते हैं न व्यवस्थित । लेकिन सच्ची आवश्यकताओं को, अनिवार्यता को संतुष्ट कर पाने का आनंद पाना जरूर अच्छा है । यह रोग को स्वास्थ्य में बदलने, मिथ्यात्व को सत्य में बदलने, पीड़ा को हर्ष में बदलने के जैसा आनंद है यह वही चीज है : एक कृत्रिम और मूर्खता-भरी जरूरत को-जो किसी स्वाभाविक चीज के साध मेल नहीं खाती-एक ऐसी संभावना में बदलना जो बिलकुल स्वाभाविक वस्तु बन जाये । विभित्र कामों के लिए और किसी चीज का प्रबन्ध करने, मरम्मत करने, इधर निर्माण, उधर व्यवस्था करने के लिए इतने धन की जरूरत है-यह बिलकुल ठीक और अच्छा है । और मैं जानती हूं कि लोग इस सबके लिए, जहां आवश्यकता है ठीक वहां धन पहुंचाने के लिए साधन बनना चाहते हैं । ऐसे लोगों में यह भाव समुचित होता है... पर जो लोग धन को हड़प लेना चाहते हैं उनमें यही भाव मूर्खता- भरे अहंकार का रूप ले लेता हैं ।

 

     संचय करने की आवश्यकता और खर्च करने की आवश्यकता (दोनों अज्ञानपूर्ण और अंधी हैं ), दोनों मिलकर एक स्पष्ट दृष्टि और श्रेष्ठतम उपयोग ला सकती हैं । यह ठीक है । अच्छा है ।

 

     उसके बाद, धीरे-धीरे आती है उसे व्यवहार मे लाने की संभावना । लेकिन, स्वभावत:, तब जरूरत होती है बहुत स्पष्ट, निर्मल मस्तिष्कों की, मध्यस्थों की (!) ताकि व्यक्ति एक ही समय सब जगह रह सके और एक ही समय सब कुछ कर सके । तब धन का यह विख्यात प्रश्न हल हो सकेगा ।

 

     धन किसी व्यक्ति विशेष का नहीं है । यह एक सामूहिक संपत्ति है जिसका उपयोग उन्हीं लोगों को करना चाहिये जिनमें संपूर्ण, व्यापक और वैश्व दृष्टि है । मैं यहां कुछ और भी जोड़ दूं : केवल संपूर्ण और व्यापक ही नहीं, बल्कि मूलत: सत्य-दृष्टि भी हो, ऐसी दृष्टि जिसके अंदर ऐसा विवेक हो जो वैश्व प्रगति के अनुकूल उपयोग में और मनमौजी उपयोग मै

 

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फक कर सके । लेकिन ये ब्योरे की बातें हैं, क्योंकि भूलें भी, अमुक दृष्टिकोण से अपव्यय भी, सामान्य प्रगति में सहायक होता है : ये कठिनाई सें सीख गये पाठ होते हैं ।

 

 (मौन)

 

    मुझे 'क्ष' की बात हमेशा याद रहती है ('क्ष' दानशीलता का कट्टर विरोधी था); वह कहा करता था : दानशीलता मनुष्य के दुःख-दैन्य को बनाये रखती है, क्योंकि मनुष्य के दुःख-दैन्य के बिना उसके अस्तित्व का कोई कारण हीं न रहेगा!... और वह महादानी, क्या नाम था उसका?- माजारिन के काल में, जिसने (लिट्ल सिस्टर्ज़ ऑफ चरिटी) नामक संस्था की स्थापना की थी?...

 

    वैसा द पॉला  !

 

 हां, वही । एक बार माजारिन ने उससे कहा : जब से तुमने गरीबों का ख्याल रखना शुरू किया है, उससे पहले कभी इतने गरीब लोग न थे!

 

    (माताजी हंसती हैं । )

 

     बाद में ।

 

 धन के बारे में मैंने जो कहा था उसके बारे में मैंने फिर से सोचा है । ओरोवील का जीवन इसी भांति संगठित होना चाहिये, लेकिन मुझे संदेह है कि लोग इसके लिए तैयार भी हैं ।

 

      मतलब यह कि यह तब तक संभव है जब तक वे किसी ज्ञानी का पक्ष-प्रदर्शन स्वीकार करें ?

 

 हां । पहली चीज जिसे सबको मानना और स्वीकार करना चाहिये यह है कि अदृश्य और उच्चतर शक्ति-यानी, वह शक्ति जो चेतना के ऐसे स्तर

 

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की है जो अधिकतर लोगों की आंख से ओझल रहता है, फिर भी जो हर एक के अंदर है, एक ऐसी चेतना जिसे कुछ भी, कोई भी नाम दिया जा सकता है, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता, लेकिन जो संपूर्ण और पवित्र है, इस अर्थ में कि वह मिथ्या नहीं है, ' सत्य ' में है-यह शक्ति किसी भी भौतिक शक्ति की अपेक्षा कहीं अधिक सत्य, कहीं अधिक सुखद, सबके लिए कहीं अधिक हितकर तरीके से भौतिक चीजों पर शासन कर सकती है । यह पहली बात है । एक बार इस बात पर सहमत हो जाओ तो...

 

    यह चीज ऐसी नहीं जिसे पा लेने का ढोंग किया जा सके; कोई इसका दिखावा नहीं कर सकता कि वह उसे प्राप्त है, या तो उसके पास हैं या नहीं है, क्योंकि (हंसते हुए) अगर यह ढोंग है तो जीवन में किसी भी अवसर पर प्रकट हो जायेगा! इसके अतिरिक्त, यह तुम्हें कोई भौतिक शक्ति नहीं देती । और इसके बारे में भी, 'क ' ने एक बार कहा था-वह सच्चे अनुक्रम की, प्रत्येक व्यक्ति की चेतना की शक्ति पर आधारित अनुक्रम की बात कर रहा था-वह या वे व्यक्ति जो शीर्षस्थ होते हैं उनकी आवश्यकताएं, निश्चित रूप से, कमसेकम होती हैं; जैसे-जैसे भौतिक पदार्थ के बारे में उनकी अन्तर्दृष्टि की क्षमता बढ्ती जाती है वैसे-वैसे उनकी भौतिक आवश्यकताएं घटती जाती हैं । और यह बिलकुल सच है । यह अपने- आप, सहज रूप में होता हैं, किसी प्रयास का परिणाम नहीं होता : चेतना जितनी विशाल होगी, वह जितना अधिक वस्तुओं और वास्तविकताओं को अपने उर में ले सकेगी-उसकी भौतिक वस्तुओं की आवश्यकताएं उतनी ही कम होती जायेंगी । यह अपने- आप होता है, क्योंकि चीजें अपना महत्त्व और मूल्य खो बैठती हैं । उनकी भौतिक आवश्यकताएं कमसेकम रह जायेंगी, ' जड़- द्रव्य ' की क्रमिक प्रगति के साथ-साहा अपने- आप बदलेगा ।

 

     और यह आसानी से पहचाना जा सकता है, हैं न ? इस भूमिका का अभिनय करना कठिन है।

 

     और दूसरी चीज है विश्वास की शक्ति; यानी, जब उच्चतम चेतना का ' जड़ द्रव्य ' के साहा संपर्क हो जाये, तो सहज रूप से उसमें विश्वास की शक्ति मध्यवर्ती स्तरों की अपेक्षा बहुत अधिक होती है । उसकी विश्वास की शक्ति, यानी, उसकी रूपान्तर की शक्ति महज संपर्क में भी सभी मध्यवर्ती स्तरों से अधिक होती है । यह एक तथ्य हैं । ये दो तथ्य किसी भी ढोंग का

 

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स्थायी हो सकना असंभव कर देते हैं । में सामूहिक संगठन की दृष्टि से देख रही हूं ।

 

    जैसे ही व्यक्ति इस परम ' उच्चता ' से नीचे उतरता है कि विभिन्न प्रभावों का पूरा-का-पूरा खेल शुरू हो जाता है (मिश्रण और संघर्ष की मुद्रा) और यह अपने- आपमें एक असंदिग्ध चिह्न है : जरा-सा अवतरण -चाहे वह उच्चतम मन के, उच्चतर बुद्धि के क्षेत्र में हीं क्यों न हो-होते ही प्रभावों का संघर्ष शुरू हो जाता है । सिर्फ जो सबसे ऊपर दु, जिसमें पूर्ण पवित्रता है, उसमें सहज दृढ़ विश्वास की शक्ति होती हैं । इसलिए, तुम उसके स्थान पर जो भी करो, वह बस उसके सदृश भर है, और यह गणतंत्र सें ज्यादा अच्छा नहीं है-यानी, एक ऐसी प्रणाली जो निम्नतम स्तर पर अधिकतम संख्या द्वारा शासन करना चाहती हैं-मैं यहां सामाजिक गणतंत्र की बात कर रही हूं जो सबसे नया आंदोलन है ।

 

    अगर परम 'चेतना' का कोई प्रतिनिधि नहीं है-यह हो सकता है, है न ?- अगर कोई नहीं है तो, परीक्षण के तौर पर, एक छोटी संख्या शासन का भार ले सकती है-उसके लिए चार और आठ के बीच चुनाव किया जा सकता है, इसी तरह की कोई संख्या हों, चार, सात या आठ-ऐसे लोग जिनमें अन्तर्ज्ञान बुद्धि हो : इसमें बुद्धि की अपेक्षा '' अन्तर्ज्ञान '' का महत्त्व ज्यादा है-एक ऐसा अन्तर्ज्ञान हों जो बुद्धि के दुरा प्रकट होता हो ।

 

   व्यावहारिक दृष्टि से इसमें कठिनाइयां होगी, लेकिन यह शायद निम्नतम स्तर की अपेक्षा सत्य के अधिक निकट होगा-फिर चाहे वह समाजवाद हो या साम्यवाद । बीच के सभी उपाय असमर्थ सिद्ध हो चुके हैं : धर्मतंत्र, अभिजाततंत्र, गणतंत्र, धनिकतंत्र आदि सब सरकारें पूरी तरह असफल हो चुकी हैं । दूसरी, साम्यवादी या समाजवाद सरकार भी अपने- आपको असफल सिद्ध करने के मार्ग पर है ।

 

      उनके मूल रूप में देखा जाये तो समाजवाद या साम्यवाद में सरकार नहीं होती, क्योंकि उसमें दूसरों पर शासन करने की क्षमता नहीं होती; ये लोग शक्ति किसी ऐसे को दे देने के लिए बाधित हो जाते हैं जो उसका उपयोग कर सके । उदाहरण के लिए, लेकिन, क्योंकि उसमें मस्तिष्क था । लेकिन इस सबका परीक्षण हो चुका है और ये सब प्रणालियोंको असफल सिद्ध हुई हैं । केवल एक ही चीज समर्थ हो सकती हैं, और वह है ' सत्य-

 

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चेतना ' जो अपने यंत्र स्वयं चुनेगा और अपने- आपको अगर एक न हो तो कुछ यंत्रों के दुरा प्रकट करेगी- और '' एक '' पर्याप्त भी नहीं है, अनिवार्य रूप से ''एक '' को अपना दल चुनना होगा ।

 

   जिनमें यह चेतना हो वे समाज के किसी भी वर्ग के हो सकते हैं : यह एक ऐसा विशेषाधिकार नहीं जो जन्म से आता हों, यह प्रयास का फल, व्यक्तिगत विकास का फल होता है । असल में यह एक बाहरी चिह्न, राजनीतिक दृष्टिकोण से डटकर परिवर्तन का एक स्पष्ट चिह्न हे-इसमें वर्ग, श्रेणी या जन्म का कोई महत्त्व नहीं रहता-वे सब अप्रचलित और लुप्त हो जाते हैं । उन्हीं व्यक्तियों को शासन करने का अधिकार रहता हे जो उच्चतर चेतना तक पहुंच चुके हैं-दूसरों को नहीं, और इस बात का कोई मूल्य नहीं होता कि वे किस वर्ग के हैं ।

 

     यही सच्ची दृष्टि होगी ।

 

    लेकिन यह जरूरी है कि जो लोग इस परीक्षण में भाग ले रहे हों उन सबको यह विश्वास हो कि उच्चतम चेतना हीं अत्यंत पोतिक वस्तुओं की सबसे अच्छी निर्णायक हैं । जिस चीज ने भारत का नाश किया है वह यह विचार है कि उच्चतर चेतना उच्चतर वस्तुओं के बारे में जानती है और निचले स्तर की चीजों में उसे बिलकुल कोई रस नहीं होता, और वह इन चीजों को बिलकुल नहीं समझती ! इसी ने भारत का सर्वनाश किया । हां तो, इस भ्रांति का पूरी तरह निराकरण होना चाहिये । उच्चतम चेतना हो सबसे ज्यादा स्पष्ट देखती है-सबसे ज्यादा स्पष्ट और सबसे ज्यादा सत्य रूप में देखती है-कि नीर भौतिक वस्तुओं की क्या आवश्यकताएं होंगी ।

 

     इसके साथ, एक नये ढंग की सरकार का परीक्षण किया जा सकता है ।

 

 ३१ मई, १९६९

 

 परसों रात, मैंने श्रीअरविन्द के साध तीन घंटे से अधिक समय बिताया ओर मैं उन्हें वह सब दिखा रहीं थी जो ओरोवील मे उतरनें वाला है । यह काफी मनोरज्जक था । खेल थे, कला थी, यहां तक कि पाकविधा भी थी ।
 

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लेकिन यह सब बहुत प्रतीकात्मक था । और मैं उन्हें मानों एक मेज़ के पास बेटी समझा रही थी, एक विशाल भूदृश्य (लैंडस्केप) सामने था । मैं उन्हें वह सिद्धांत समझा रही थी जिसके अनुसार शारीरिक व्यायाम और खेल-कूद व्यवस्थित होने वाले हैं । वह बहुत स्पष्ट, बहुत यथार्थ था, मैं मानों कोई प्रदर्शन दे रही थी, और ऐसा लग रहा था मानों मैं छोटे पैमाने पर, जो कुछ होने वाला है उसका, छोटा रूप दिखा रही थी । मैं व्यक्तियों और वस्तुओं को इधर से उधर घुमा-फिरा रही थी (शतरंज की बिसात पर मोहरें चलाने का संकेत) लेकिन वह था बहुत मजेदार, और वे बहुत रुचि ले रहे थे : वे व्यवस्था के विशाल नियमों का निर्धारण कर रहे थे (मुझे मालूम नहीं इसे कैसे समझाऊं) । वहां कला थी जो सुंदर थी, अच्छी थी । वे बता रहे थे कि निर्माण के किस विधि-विधान के दुरा घरों को सुखद और मोहक बनाया जाये और फिर रसोईघर को भी यह इतना मजेदार था, हर एक अपने- अपने आविष्कार ले आया... । यह तीन घण्टे तक चला-रात के तीन घण्टे, बहुत होते हैं! बहुत ही मनोरंजक ।

 

      फिर धी धरती की अवस्थाएं उस सबसे बहुत दूर लगती हैं ...

 

 ( कुछ रुककर ) नहीं... वह ठीक यहीं था, वह पृथ्वी पर विजातीय नहीं प्रतीत हुआ । वह एक सामंजस्य था : चीजों के पीछे एक सचेतन सामंजस्य; शारीरिक व्यायामों और खेल-कूद के पीछे एक सचेतन सामंजस्य; सज्जा, कला के पीछे एक सचेतन सामंजस्य; भोजन के पीछे एक सचेतन सामंजस्य...

 

 मेरा मतलब है कि धरती पर अभी जो कुछ उसको देखते हुए प्रतीत होता है मानों यह सब धुव पर है।

 

नहीं...

 

       नहीं ?

 

 

 मैं आज ' य ' से मिली थी, मैं उससे कह रही थी कि कला और खेल-कूद,

 

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यहां तक कि भोजन और बाकी सभी चीजों की सारी व्यवस्था सूक्ष्म- भौतिक में हो चुकी है-ये चीजें नीचे उतरनें और मूर्त रूप लेने के लिए तैयार हैं-और मैंने उससे कहा : '' केवल मुट्ठी- भर मिट्टी की आवश्यकता है (हाथों को बद करने की क्रिया ), मुट्ठी- भर मिट्टी जहां पौधा उगाना जा सके... । उसे विकसित होने देने के लिए मुट्ठी- भर मिट्टी ढूंढना होगी । ''

 

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